मध्य प्रदेश की राजनीति में जो भूचाल आया उसके बारे में कांग्रेसी आलाकमान और कांग्रेसीयों ने कल्पना तक नहीं की होगी वैसे भी राजनीति में महाभारत,सियासी उठा-पटक ना हो तब तक राजनीतिक गलियारे सूने ही रहते हैं। राजनीति शह और मात का खेल है, ऐसे ही प्रदेश के राजनीतिक सियासी खेल मे कई वर्षों बाद सत्ता में आई कांग्रेस चंद महीनों में भाजपा की कूटनीति में फँसकर सत्ता से बाहर हो गई वहीं दूसरी तरफ जनता की बेरुखी का शिकार हुई भाजपा महाराज की कृपा से पुनः सत्तासीन हो गई।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने का लाँछन लगा महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक विधायकों पर, जिन्होंने कांग्रेस की नैया को बीच मझधार में ही डुबो दिया। सिंधिया समर्थक विधायक दु:खी इस बात से थे की महाराज को वर्तमान कांग्रेस में उचित सम्मान, स्थान नहीं मिल रहा था। कांग्रेस की सत्ता होने के बावजूद महाराज को ना तो मुख्यमंत्री बनाया, ना पार्टी ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया, उल्टा लोकसभा चुनाव में महाराज संसदीय क्षेत्र गुना से चुनाव हार गए। हार का सेहरा महाराज सिंधिया ने राजा साहब के माथे बाँधा। महाराज और “हाथ का साथ” पिछले दो दशकों से था,जिसके चलते वे कई बार सांसद,केंद्रीय मंत्री व कांग्रेस के उच्च पदों पर रहे मगर इस बार चुनाव हारने,पार्टी में अनदेखी व लगातार हो रहे तिरस्कार से नाराज महाराज सियासी उलट-फेर का ताना-बाना बुन रहे थे? म.प्र. में महाराज का इशारा मिलते ही प्रदेश की कांग्रेस सरकार में मौजूद महाराज समर्थक विधायकों ने कमलनाथ सरकार को एक ही झटके में धराशाही कर विपक्ष में बैठा दिया। अब देखना है कि अधबीच जो “कलंक” कमलनाथ और कांग्रेस पर महाराज समर्थक विधायकों ने लगाकर पार्टी छोड़ी, क्या उसकी क्षतिपूर्ति कांग्रेस उपचुनाव जीतकर कर पायेगी या फिर विपक्ष को ही सुशोभित करेगी?
दुविधा! महाराज के चुनौती स्वीकार ना करने की ?
प्रदेश की राजनीति में सिंधिया राजघराने के प्रति सिंधिया समर्थकों व आम जनों का अटूट विश्वास और सम्मान है। आम जनता के बीच सिंधिया परिवार की छबि बेदाग और साफ- सुथरी है। महाराज ने भी अपने कुल की प्रतिष्ठा, मान -मर्यादा,सम्मान, प्रतिष्ठा को बरकरार रखा है। यही कारण है कि प्रदेश की राजनीति में राजघराने की तूती बोलती है। लेकिन कुछ सिंधिया समर्थक दबी जुबान महाराज के भाजपाई हो जाने से कुंठा ग्रस्त महसूस कर रहे है। जगजाहिर है बरसों महाराज ने भाजपा को खुले मंच से आरोप-प्रत्यारोप लगाते,भाषण देते,हमला बोलते देखा-सुना है।आज स्वार्थवश राजनीतिक अवसर को भुनाने कैसे सारी बातें हवा हो गई,क्या मंचों से महाराज के भाजपा पर लगाए आरोप झूठे थे?
यदि महाराज की नज़रों में समर्थकों व फेन्स क्लब के पदाधिकारियों का जरा भी मोल होता, मान-सम्मान होता, स्नेह होता तो वे भाजपा के रंग में नहीं रंगते, भाजपा जॉइन नहीं करते? भाजपा के दिए अवसर का लाभ लेने की बजाय महाराज “नई पार्टी” गठित करते। जहाँ सारे समर्थक आपके मिशन और विज़न को जनता तक पहुँचाते साथ ही समर्थकों में भी नए जोश,उमंग का संचार होता। आप भविष्य में प्रदेश के लिए नया चेहरा(मुख्यमंत्री)बनकर उभर सकते थे। आपकी छबि बेदाग, साफ-सुथरी होने से प्रदेश की जनता आपको प्रदेश में विकास की कमान दे सकती थी, आप जनता के लिए बेहतर, उपयुक्त विकल्प हो सकते थे लेकिन आपने चुनौती स्वीकार नहीं की?
उदाहरण दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल है जिन्होंने अपनी साफ-सुथरी छबि और विश्वास की बदौलत “नई पार्टी”(आम आदमी पार्टी) का गठन कर चुनौती स्वीकार की और जनता के वोट के बलबूते बरसों से जमी भाजपा कांग्रेस को दिल्ली में धूल चटा दी अर्थात अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की तस्वीर बदल दी। महाराज आप भी मध्य प्रदेश की तस्वीर बदल सकते थे परन्तु आप ने “नई पार्टी” गठन करने की चुनौती स्वीकार करने की बजाय स्वार्थवश ,पद के मोहजाल में फँसकर स्वयं को सेट कर लिया लेकिन जो समर्थक राजघराने के प्रति अद्म्य श्रद्धा, विश्वास, रखते है उन्होंने आपकी देखा-देखी भाजपा तो जॉइन कर ली अब इनका राजनीतिक भविष्य उपचुनाव में दाँव पर है। भाजपा के ओरिजनल, जमीनी कार्यकर्ता व पदाधिकारी क्या आपके समर्थकों को पचा पाएंगे, उचित सम्मान दे पाएंगे? या सिर्फ भाजपा के लिए वोटों की बम्पर आवक बनकर घुटने टेक देंंगे?
चर्चाओं का बाजार इस बात पर भी उबाल मार रहा है कि जिस तरह महाराज व उनके कट्टर समर्थकों ने अपमान,अनदेखी, तिरस्कार के चलते “हाथ का साथ” छोड़ा था वही हालात अगर भाजपा में भी बने तो वे अगली दफा किस दरवाजे दस्तक देंगे? क्योंकि राजनीति में इस बात की कोई ग्यारंटी,शर्त,प्रतिबंध नहीं है कि जैसा कांग्रेस ने किया वह भाजपा नहीं दोहरा सकती?
गुलाब के साथ काँटे भी
म.प्र. में हुए सियासी बदलाव के बाद कांग्रेसियों ने महाराज व समर्थकों को “विभीषण” की संज्ञा से तो भाजपा ने महाराज को गुलाब का फूल मानकर स्वीकार करते हुए प्रदेश में फिर से सत्ता का कमल खिला दिया। लेकिन याद रहे गुलाब के साथ काँटे भी होते हैं, गुलाब में लगे काँटे भाजपा को अब चुभने लगे हैं,चोटिल करने लगे हैं, घायल करने लगे हैं, अर्थात महाराज के साथ उनके समर्थक व समर्थित विधायकों ने “हाथ का साथ” छोड़ कर भाजपा का दामन थामा तो प्रदेश में भाजपा की सत्ता में उप चुनाव होने तक वापसी तो हो गई लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार करने में भाजपा को ऐड़ी से चोटी तक पसीना-पसीना आ गया।बमुश्किल दिल्ली के हस्तक्षेप से शिवराज मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ। मंत्रिमंडल के विस्तार में पहले कभी इतनी फजीहत नही हुई,जैसी इस बार देखने मिली। मंत्रिमंडल में महाराज समर्थकों को भाजपा ने सिर माथे बैठा लिया जिसके चलते भाजपा में अंदरूनी अंतर्कलह के बिगुल गायत्री राजे पँवार और रमेश मेंदोला समर्थकों ने बजाए।उपचुनाव में टिकिट वितरण भाजपा के लिए बड़ा सिरदर्द बन सकता है साथ ही एक बड़ी खेप के भाजपा में आ जाने से ओरिजनल भाजपाईयों को अजीर्ण हो गया है,वे इन्हें पचा नही पा रहे है? अब दिलचस्प यह होगा कि भाजपा यदि सिंधिया समर्थकों को टिकिट देगी तो “कैक्टस” का बीजा रोपण होगा । ऐसे में उपचुनाव के मद्देनजर भाजपा के हारे हुए और योग्य उम्मीदवार जो बरसो से भाजपा का शंखनाद कर रहे है उनसे भाजपा कैसे निपटेगी? अगर उन्हें दरकिनार किया तो बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा परन्तु म.प्र. का किला कौन फतह करेगा यह तो उपचुनाव के परिणाम ही तय करेंगे?
रुपया तो एडजस्ट हो जाएगा, चिल्लरों का क्या होगा?
यह मान भी लिया जाए महाराज की हाथ के साथ पटरी नही बैठ रही थी। जिसको लेकर उन्होंने कई बार कांग्रेस हाईकमान को अपनी पीड़ा और दर्द से अवगत कराया परन्तु अपमान, अनदेखी और तिरस्कार के चलते कांग्रेसियों को ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ ही प्रदेश की सत्ता से हाथ धोना पड़ा। अनदेखी और पद के अभाव में जूझते, कराहते महाराज की दर्द भरी पीड़ा पर भाजपा ने राज्यसभा से उन्हें संसद पहुँचाकर मरहम लगाया अर्थात महाराज की गोटी फिट हो गई लेकिन सिंधिया राजघराने के प्रति अपार श्रद्धा , विश्वास,सम्मान रखने वाले महाराज समर्थक विधायकों ने जो सत्ता परिवर्तन किया उससे म.प्र. में दो दर्जन से अधिक सीटों पर उपचुनाव की अग्निपरीक्षा का मैदान तैयार हो गया। यदि भाजपा उपचुनाव में सिंधिया समर्थकों को टिकिट देती है तो, जो जीत गए वे तो फिट हो जाएंगे लेकिन जो हार गए उनका राजनैतिक करियर मिट जाएगा?
ताजा उदाहरण प्रेमचंद “गुड्डू” का है जो कांग्रेस छोड़ अपने बेटे को भाजपा से टिकिट दिलवाने में शायद किसी “डील” के तहत सफल तो हो गए थे लेकिन बेटा चुनाव हार गया। भाजपा के निष्ठावान और जमीनी कार्यकर्ताओ की अनदेखी और भाजपा से उचित सम्मान ना मिलने पर इन्होंने भाजपा छोड़ पुनः “हाथ का साथ” थाम लिया। महाराज को तो भाजपा एडजस्ट कर लेगी लेकिन यही घटनाक्रम यदि महाराज समर्थकों के साथ हुआ तो क्या इन्हें पुनः “हाथ का साथ” मिलेगा या फिर सरकार गिराने का दंश झेलना पड़ेगा?
द्रौपदी ओर जनता सियासत के महाभारत में जनता का लूटना तय है,जैसे महाभारत में द्रौपदी कौरवों के हिस्से आई तो चीरहरण कर ली गई और पांडवो के हिस्से आई तो जुएँ में हारी गई। वहीं हाल जनता का है सत्ता में कोई भी पार्टी आये जनता का लूटना,तबाह होना तय है?